सोमवार, 16 जनवरी 2012

Omkar nath yogi

Name- Omkar Nath Yogi s/o Sh. Jethnath yogi

Address- Nath basti, near harijan school, Lunkaransar, Bikaner,
Rajasthan (334603)

Mobile no. - Not avliable

E-mail- Not avliable

Photo- Not avliable

Profession- Senior lecturar of hindi at Govt. Sr. Sec. School, Lunkaransar

Special- Very well behaved person and highly qualified


If anyone have photo, email and mobile number. Please send me at my
email address.

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शनिवार, 14 जनवरी 2012

पँ. माखनलाल चतुर्वेदी

माखनलाल चतुर्वेदी सरल भाषा और
ओजपूर्ण भावनाओं के अनूठे
हिन्दी रचनाकार थे। उन्हें 'एक भारतीय
आत्मा' उपनाम से भी जाना जाता था।
राष्ट्रीयता माखनलाल चतुर्वेदी के
काव्य का कलेवर तथा रहस्यात्मक प्रेम
उनकी आत्मा रही। उन्होंने
स्वतंत्रता आंदोलन में भी सक्रिय रूप से
भाग लिया।
चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में
गूंथा जाऊं
चाह नहीं प्रेमी माला में बिंध
प्यारी को ललचाऊं
चाह नहीं सम्राटों के शव पर हे
हरि डाला जाऊं
चाह नहीं देवों के सिर पर चढूं भाग्य पर
इठलाऊं
मुझे तोड़ लेना वनमाली उस पथ पर
देना तुम फेंक
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जावें
वीर अनेक ।
हिन्दी जगत के कवि, लेखक, पत्रकार
माखनलाल चतुर्वेदी का जन्म 4 अप्रैल
1889 को बावई (मध्यप्रदेश) में हुआ।
इनका परिवार राधावल्लभ सम्प्रदाय
का अनुयायी था इसीलिए चतुर्वेदीजी के
व्यक्तित्व में वैष्णव पद कंठस्थ हो गए।
प्राथमिक शिक्षा के बाद घर पर
ही उन्होंने संस्कृत का अध्ययन किया। 15
वर्ष की आयु में आपका विवाह हुआ और अगले
ही वर्ष 8 रु. मासिक वेतन पर इन्होंने
अध्यापन का कार्य शुरू किया।
1913 में चतुर्वेदीजी ने
प्रभा पत्रिका का संपादन आरंभ किया,
जो पहले पूना और बाद में कानपुर से
छपती रही। इसी दौरान उनका परिचय
गणेश शंकर विद्यार्थी से हुआ जिनके
देशप्रेम और सेवाभाव का चतुर्वेदीजी पर
गहरा प्रभाव पड़ा। 1918 में कृष्णार्जुन
युद्ध नामक नाटक की रचना की और
1919 में जबलपुर से कर्मवीर का प्रकाशन
किया।
12 मई 1921 को राजद्रोह में उन्हें
गिरफ्तार कर लिया गया। 1943 में आप
हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष रहे।
हिन्दी काव्य के विद्यार्थी माखनलाल
चतुर्वेदी की कविताएं पढ़कर
आश्चर्यचकित रह जाते हैं। उनकी कविताओं
में कहीं ज्वालामुखी की तरह धधकता हुआ
अंतरमन है,
जो विषमता की समूची अग्नि सीने में
दबाए फूटने के लिए मचल रहा है
तो कहीं विराट पौरूष की हुंकार,
कहीं करुणा की दर्दभरी मनुहार।
वे जब आक्रोश से उद्दीप्त होते हैं
तो प्रलयंकर का रूप धारण कर लेते किंतु
दूसरे ही क्षण वे अपनी कातरता से विह्वल
हो जाते। चतुर्वेदीजी के व्यक्तित्व में
संक्रमणकालीन भारतीय समाज
की विरोधी विशिष्टताओं का सम्पुंजन
दिखाई पड़ता था।
माखनलालजी की आरंभिक रचनाओं में
भक्तिपरक अथवा आध्यात्मिक विचार
प्रेरित कविताओं का भी काफी महत्वपूर्ण
स्थान है। उनकी कविताओं में
प्रकृति चित्रण का भी एक विशेष महत्व
है। मध्यप्रदेश की धरती का उनके मन में
एक विशेष आकर्षण है।
भाषा और शैली की दृष्टि से उन पर आरोप
लगाया जाता था कि उनकी भाषा बड़ी बेडौल
है। उसमें कहीं-कहीं व्याकरण
की अवहेलना की गई है। किंतु ये सारे दोष
एक बात की सूचना देते हैं कि कवि ने
अपनी अभिव्यक्ति को इतना महत्वपूर्ण
समझा है कि उसे नियमों में हमेशा आबद्ध
रखना उन्हें स्वीकार नहीं हुआ। 1949 में
उनको साहित्य अकादमी पुरस्कार से
पुरस्कृत किया गया। 30 जनवरी 1968
को उनकी मृत्यु हो गई।

लेख

हवा में कसमसाहट-सी महसूस होती है।
भीतर कुछ कसकता है। एक कातरता, एक
उद्वेग और क्लांति मन पर छाई हुई है। मैं
खिड़की खोलकर देखता हूँ तो उस हवेली के
पीछे का उजाड़ हिस्सा नज़रों में
छा जाता है। वह हवेली पिछले कई
सालों से बंद थी। उसके ऊपरी गुंबदों में
कबूतरों ने घर बना लिया था। गाँव से दूर
एकाकी इस हवेली के आसपास
की खाली जगह में घास-पात ज़रूर उगा हुआ
था, पर वक्त के साथ वह सब सूख चुका था।
पिछले एक-दो सालों में तो ठीक से बारिश
का पानी तक नहीं मिला था, इसलिए और
भी अजीब-सी वीरानी छा चुकी थी।
मैंने सुबह इस हवेली को खुलवाया था। एक
मज़दूर सफ़ाई के लिए लगाया था। वह
सफ़ाई में व्यस्त था, और मैं कुर्सी पर पड़े-
पड़े कुछ पढ़ रहा था। सांसों में कुछ
कसैली गंध आ रही थी। मन पढ़ने में नहीं लग
रहा था। दोपहर का समय था। मैंने
खिड़की खोली तो हवेली के पीछे का उज़ाड़
मैदान नज़र आया। दूर एक
पहाड़ी दिखती थी। आसपास कुछ पेड़ थे
जिनके पत्तों की चमक खो चुकी थी। मुझे
कुछ अजीब-सा लग रहा था। वातावरण में
एक अलग तरह की गंध फैली थी। अचानक
मेरी दृष्टि मैदान के एक कोने में गई,
वहाँ एक पौधा वातावरण से अनजान
हरियाली चादर ओढ़कर मुस्करा रहा था।
उसकी शाख पर एक अधखिली कली नींद से
अलसाई हुई थी। लगता था यह
कली अभी अपना पूरा मुँह खोलकर
बगासी लेगी और अपनी आँखें खोल देगी। मैंने
देखा उस पौधे की पत्तियाँ उस कली पर
अपनी हरी चादर से छाया कर रही थीं।
पौधे की शाखाओं में एक चौकस सजगता थी।
वहाँ एक फूल का जन्म होने वाला था। एक
अतिरिक्त देखभाल में पत्तियाँ सजगता से
उस कली को सँभाल रही थीं। मुझे उन
पत्तियों में एक तालबद्ध, नादपूर्ण और
सराग कर्तव्य निष्ठता निनादित
होती लगी। मैं चकित हुआ।
मैंने देखा है किस प्रकार नए बच्चे के जन्म
पर चिंतित एक गरीब परिवार में
घबराहट व्याप्त रहती है। मैंने
बिना स्वागत के जन्म लेते हुए मनुष्य के
बच्चों को भी देखा है। कांसे
की थाली बजाकर बच्चे के जन्म
की खुशी मनाती हुई मानवी खुशी का और
खोखली हाड़-मांस
की पुतलियों की दुर्दशा होते हुए
भी देखा है। ऐसे में बच्चे का जन्म
किसी खुशी का नहीं, संताप
की स्तब्धता का रूप ले लेता है। मुझे
इतना झकझोरा हैं इस सच ने कि मनुष्य के
जन्म तक को इतना अवांछित समझने
वाली इस दुनिया में कई बार मनुष्य
की गरिमा पर मुझे अपना भरोसा बनाए
रखना तक कठिन जान पड़ा है।
ऐसी दुनिया में एक फूल के जन्म को लेकर
किसी पौधे की शाखाओं और पत्तियों में एक
ऐसी धृतिमान और लालसाहीन ललक पाकर
मैं मनुष्य होने की अनुभूति का सुखद
पारितोषिक पा गया। मैं निहाल
हो रहा था इस नज़ारे पर, सचमुच यह
विलक्षण अनुभूति थी।
मैं हवेली का दरवाज़ा खोलकर उस पौधे के
पास जा पहुँचा। मैं उसके पास ज़मीन पर
बैठ गया। मैं उस उष्मा को अपनी सांसों से
छूना चाहता था। मैं सूरज की किरणों में
उस कलिका के प्रसव हेतु आकाश मार्ग से
उतरती हुई
सावित्री रूपी ममतामयी धाय को आते
देख रहा था। मैंने उस कलिका को धारण
कर
रही डाली की आभा को देखा उसका प्रभास
ललाम था। उस हरित उज्ज्वल डाल ने ताज़े
पत्तों से कलिका का बदन ढांप रखा था।
वहाँ फूल खिलना चाह रहा था। यह चाहत
बड़ी प्यारी थी। मैं उसके पास बैठकर
स्वस्ति वाचन करने लगा।
मैं उस फूल का स्वागत कर रहा था,
जो अभी-अभी चटखेगा और इस विशाल
ब्रह्माण्ड में अपनी नगण्य-
सी उपस्थिति दर्ज कराएगा।
उसकी नगण्यता उसकी अल्पता नहीं,
ब्रह्माण्ड की विशालता का एक निर्मम
नियम मात्र है, जिसमें नगण्य होते हुए
भी उस एक फूल की महिमा कम
नहीं होगी। उसका पराग उसका सौरभ
उसकी गंध हवाओं की गोद में खेलेगी, और
आकाश छू आएगी। उसे कोई नहीं जानेगा, पर
वह अपनी अल्पज्ञता में ही अपनी पहचान
स्वयं करेगी और अपने निर्वाण को प्राप्त
होगी। उस फूल का खिलना व्यर्थ
नहीं जाएगा इतना मुझे विश्वास है
इसलिए मैं उसके जन्म के
क्षणों का साक्षी होने और इस ब्रह्मांड में
उसके आगमन का स्वागत करने हेतु तत्पर
बैठा हूँ।
इधर हवाओं में कसैली-सी गंध फैली हुई हैं।
यह गंध बारूद की गंध है। धरती पर हर पल
हर क्षण कहीं न कहीं कोई युद्ध चल
रहा है। मिसाइलें दागी जा रही है।
परमाणु परीक्षण हो रहे हैं। घातक
बीमारियों के जीवाणुओं को भी हथियार
बनाकर आदमी के भीतर बैठा राक्षस
अट्टाहास कर रहा है। मासूमियत
घबरा रही है। कोमलताएँ काँप रही हैं।
सुंदरताएँ मुरझाए जा रही हैं। संवेदनाएँ
मूर्छित है। कोई दैत्य अपने विशाल पैरों के
नीचे चीटियों की तरह
ज़िंदगियों को कुचलता हुआ
चला जा रहा है, ऐसे में अपनी दुनिया से
अनजान यह नन्हा-सा फूल खिलना चाह
रहा है। आखिर क्यों?
मैं उस फूल से पूछता हूँ। तुम
यहाँ क्यों खिलना चाहते हो? क्या तुम्हें
पता है कि जिस वीराने में तुम
अपना सौंदर्य, रूप, रस और सुगंध लेकर पल
भर के लिए खिलना चाहते हो,
क्या वहाँ किसी के पास उस एक पल
का मोल समझने का माद्दा भी है
या नहीं? क्या तुम्हें पता है, हवाओं में
उड़ती हुई यह राख किसी चूल्हे से
नहीं किसी श्मशान से चली आ रही हैं।
तुम्हारे जन्म से पहले अपनी श्मशानी-
बारूदी राख के द्वारा तुम्हारा अभिषेक
करने वाला यह मृत्यकामी संसार तुम्हारे
जन्म के लिए ज़रा भी उत्सुक
नहीं लगता फिर तुम
क्यों यहाँ खिलना चाहते हो? क्या तुम्हें
यहाँ खिलते हुए डर नहीं लगता?
मुझे याद आता है बचपन में कब्रिस्तानों और
श्मशान के संबंध में जो बालोचित
उत्सुकताएँ और कल्पनाएँ मन में हुआ
करती थीं, उसके चलते एक अजीब-सा भय
लगता था। एक बार स्कूल के दिनों में कुछ
साहसी सहपाठियों के साथ चुपचाप
किसी सूनी-सी दोपहरी में एक
कब्रिस्तान में जाकर डरते-डरते भीतर
झाँकने जाने की भी याद है। सफेद पुती हुई
कब्रों की आड़ में कहीं कोई भूत या प्रेत
छिपे होने के भ्रम और कल्पना की उत्तेजित
पराकाष्ठा में भीतर जो थरथराहट हुई
और डर से भागते हुए बच्चों के होठों से
जो किलकारी फूट रही थी,
उसकी अनुभूति आज भी शब्दातीत मालूम
होती है।
आज जब यह कब्रिस्तान धरती पर सबदूर
फैलता जा रहा है, और युद्ध की मदिरा से
मत्त मनुष्य दुनिया में तबाही का तांडव
करने में धुत्त हैं, ऐसे में क्या इस फूल
को खिलते हुए कोई डर लगेगा? मैं यह
सोचते हुए व्याकुल हो रहा हूँ। सहसा मैंने
देखा वह पौधा हिला। उसके भीतर से मुझे
आवाज़ सुनाई दी। वह हँस रहा था। उसने
मुझसे पूछा - तुम इतने भयभीत क्यों हो?
क्या तुम्हें एक फूल के खिलने में
ज़िंदगी की ऊष्मा, उसकी सुगंध में प्यार
की अमरता और इस चटकदार छोटी-
सी रंगीन खुशी की ताकत महसूस
नहीं होती! मैंने सुना वह अधखिला फूल कह
रहा था, हाँ, मैं समूचा खिल
जाना चाहता हूँ। मेरे लिए
ज़िंदगी का मतलब एक क्षण है। एक भरा-
पूरा क्षण। उसमें कुछ रिक्त नहीं हैं।
इतना भरा हुआ क्षण है ज़िंदगी का जिसमें
मृत्यु के विचार को भी घुसने का अवकाश
नहीं है। मैं इस भरे पूरे क्षण का उत्सव हूँ। मैं
एक उल्लास हूँ ज़िंदा होने का, इसके
अलावा उल्लास के लिए और कौन-
सा बड़ा कारण चाहिए।
मैंने कहा, इस उल्लास को ही तो महसूस
करते हुए मैं चिंतित हूँ। और इस रंगीन
उल्लास से भरे हुए क्षण को खरोंच डालने के
लिए बढ़ रहे बर्फ़ीले
हाथों की क्रूरता भरी मज़बूती को महसूस
करते हुए मैं निरंतर चिंतित हूँ। क्या तुम्हें
यह सब नहीं पता? इतनी बेफिक्री और
इतनी बेखौफ़ी में तुम भला कैसे खिल सकते
हो? इस भयानक समय में तुम कैसे खिलोगे?
रक्तपान के लिए मुँह फाड़कर आगे बढ़ते हुए
पिशाचों के सामने तुम अपनी मुस्कान
का एक पल रख कर आखिर क्या साबित
करना चाहते हो? मुझे तुम्हारे खिलने
का कोई तो कारण बताओ। इस बार उस
पौधे के भीतर से ज़्यादा ही आत्मविश्वास
से भरी आवाज़ आई। ज़मीन पर बिछी हुई
रेत की एक कंकड़ी मेरे पैर में चुभी तो उसने
पूछा, पता है यह रेत क्या है? मैं उसके
सवाल पर अचकचाया। मैंने कहा रेत है यह
और क्या? सिर्फ़ रेत है यह।
मुझे उस पौधे के भीतर से हँसी की धमक
सुनाई दी। वह बोला, यह जितने भी रेत के
कण हैं, कभी ये पर्वत थे। इस धरती पर बहने
वाले पानी की धाराओं ने इन
पर्वतों को शताब्दियों तक काट-काट कर
कण-कण रेत बना डाला है।
पानी जितना कोमल है,
उतना ही ज़्यादा कठोर भी है। वह
पर्वतों को काटने वाली सबसे
बड़ी कुल्हाड़ी है, परंतु तुम्हें
कोमलता की ताकत का अंदाज़ा नहीं हैं,
इसलिए तुम्हें कोमलता के कुचल जाने का भय
लगता है। यही कोमलता तो कुचल-कुचल कर
फिर जन्म लेती है। घास के
मैदानों को युद्धांध बहादुरों के अश्वों ने
कितनी बार कुचला है, पर हर बारिश में
वही घास हमें गर्व से सिर ताने
खड़ी मिलती है। उसे
मिटाया नहीं जा सकता, आखिर क्यों?
क्या कभी बारूद से चूर-चूर
किया गया कोई पर्वत फिर उसी जगह
दुबारा उठकर खड़ा हो पाता है? एक बार
ध्वस्त होकर पर्वत की विशालता,
कठोरता और ताकत फिर
खड़ी नहीं हो सकती, हाँ तुम कोमल
कोपलों को ध्वस्त कर दो, कुछ दिनों बाद
वैसी ही हरी-भरी और तनी हुई वह
वहीं मुस्कराती मिलेगी? आखिर क्यों?
मैं ध्यान से सुन रहा था। वह आवाज़ एक
मामूली-से पौधे के भीतर से आ रही थी।
सुन्दरता और कोमलता ज़िंदगी की ताकत
है, जिसके बूते पर वह अमर रहती है, और
बार-बार जन्म लेती है। मृत्यु कभी जीवन
को मिटा नहीं पाती, क्योंकि मृत्यु
का जन्म भी तो जीवन से ही होता है?
जन्म लेने के लिये जीवन चाहिए। ये बारूद
की गंध, ये मिसाइलों के धुवें, ये युद्ध, ये
नफरतें, ये हत्याएँ, क्रूरताएँ ये सब मिल कर
भी कभी रोक
नहीं पाएँगी ज़िंदगी का कारवाँ। मुझे फूल
की पंखुरी से हीरे की कणी काटने
वाली ताकत पर पूरा भरोसा है, इसलिए
हवाओं में लहराती हुई इन पराग ध्वजाओं के
साथ मैं इस डाल पर फूल बनकर खिल
जाना चाहता हूँ। मैं समझ गया, एक फूल
खिलना चाहता है। और यह भी समझ
गया कि वह क्यों खिलना चाहता है।

लेख

दीपावली दीपों का उत्सव
हैं - जलते
और
जगमगाते
दीपों का।
इसीलिए
इसे
दीपोत्सव
भी कहते हैं। दीप जलता हैं-- अंधकार
को दूर भगाने
तथा अपनी ज्योति का आलोक बिखेरने।
दीपावलियाँ अपने प्रकाश से तिमिर
का संहार करती हैं। प्रकाश के समक्ष
अंधकार ठहर सकता है भला। ज्ञान व
सतोगुण के प्रसार की प्रतियोगिता में
तमोगुण और अज्ञानता नहीं रह सकते।
अँधेरे में ही जघन्यतम पाप किए जाते हैं।
पाप अज्ञानता के पर्दे के कारण ही होते
हैं। प्रकाश में स्वयं के अस्तित्व का बोध
हो जाता है, अपने
कर्मों का प्रत्यक्षीकरण हो जाता है।
ज्ञान हमें सद्मार्ग पर चलने के लिए
प्रेरित करता है। अंधकार में तो कोई
भी भटक सकता है न?
दीपक प्रकाश का पुंज हैं। उसकी लौ सदैव
ऊपर की ओर रहती है। ऊँचाई की ओर जाने
का लक्ष्य ही प्रगति का आधार है। ऊपर
जाती हुई दीपक की लौ धुआँ निकालती हैं
- कालिमा का परित्याग करती है।
प्रगति की ओर अभिमुख होने पर
अज्ञानता और मलिनता स्वयं भागने
लगती है। ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास
ही अज्ञानता को उसी प्रकार
भगा देता हैं, जिस प्रकार कोई हृष्ट-पुष्ट
बिल्ली किसी डरपोक चूहे को। ज्ञान
अपरिमित होता हैं। दीपक का प्रकाश
भी सही जगह फैलता हैं। अत: आलोकित
होने वाली दीपावलियाँ हमें निरंतर
ज्ञान का संदेश देती हैं। ज्ञान
प्रगति का द्वार हैं।
प्रगति एकाग्रता व
तन्मयता की सहेली हैं। इसी संगठन में
तो अद्भुत शक्ति का पाठ
पढ़ाया जाता है।
आलोक और ज्ञान के विद्वान देव दीपक।
तुम्हारी महानता के समक्ष
सभी को नतमस्तक होना पड़ता है। हमारे
पास तुम्हारी महानता के गीत गाने के
अतिरिक्त और है ही क्या? यही है
हमारा सर्वस्व - तुम्हारी उदारता के
प्रति हमारी कृतज्ञता। हे शक्ति के देव,
हमें शक्ति दो कि हम अपने अंतरमन
की कालिमा का परित्याग कर अपने
अंतरमन की कालिमा का परित्याग कर
अपने को निर्मल बनाएँ तथा अज्ञानता के
पर्दे को हटाकर ज्ञान का संबल प्राप्त
करें।
दीपक का आधार होती हैं, बाती-
बाती को सहयोग मिलता है तेल का-तेल
को आश्रय प्राप्त होता है, मिट्टी के उस
छोटे पात्र में जिसे दिया या दीपक कहते
हैं। बाती रूई की बनती हैं। रूई का रंग
सफ़ेद होता है, जो सतोगुण का प्रतीक हैं
और सदाचार का संकेतक। सफ़ेद रंग निर्मल
और स्वच्छ होता है। निर्मलता और
स्वच्छता सभी को अच्छी लगती हैं।
सात्विकता का अपना ही महत्व
होता है। बाती केवल रूई ही नहीं हैं,
उसको बल देकर तथा गूँथकर विशेष आकार
दिया जाता है। कामना और वासना पर
नियंत्रण रखने से ही सदाचार पनपता हैं।
सदाचार का प्रकाश दूर-दूर तक फैलता हैं।
सदाचार पर ही ज्ञान आधारित है।
बाती बिना प्रकाश
की कल्पना नहीं की जा सकती।
बाती का अपना अस्तित्व होते हुए भी वह
तेल को अपना अग्रज मानती हैं। तेल
ही तो हैं जो बाती के प्रकाश
को स्थायी बनाता हैं - उसे निरंतर
प्रज्वलित रखता हैं। तेल तरल होता है -
इतना तरल कि वह स्वयं
को किसी भी पात्र में उस पात्र के आकार
के अनुरूप संयोजित कर लेता हैं। तेल
को अपने आकार और अस्तित्व के लिए
कही कोई संघर्ष नहीं करना पड़ता।
वातावरण के अनुकूल बनकर रहना ही अपने
अस्तित्व की कुंजी होती हैं। संघर्ष करने
वालों को कौन गले लगाता है भला?
सामंजस्यता मानव के जीवन में
सफलता की कुंजी मानी जाती है। तेल स्नेह
का परिचायक है। स्नेह में ही वह अद्भुत
शक्ति होती हैं, जिसके सहारे शत्रु
भी मित्र बन सकता है। स्नेह हमारे जीवन
का आधार स्तंभ है। जिसके सहारे हमारे
परस्पर संबंध निर्भर करते हैं। तेल स्वत:
बाती में खूब मिल जाता हैं। स्नेह और
सदाचार का मिलन ही तो ज्ञान उत्पन्न
करता हैं - वैमनस्यता से परे रहकर।
मिट्टी का पात्र तेल को प्रश्रय देता है।
मिट्टी बड़ी कोमल होती हैं - उसे कुंभकार
किसी भी आकार में मोड़ सकता हैं। बचपन
की अवस्था को कच्ची मिट्टी से
तुलना की जाती हैं।
कच्ची मिट्टी को कोई भी आकार
आसानी से दिया जा सकता है। बचपन में
जो संस्कार दिए जाते हैं, वही जीवन में
स्थायी बन जाते हैं। कोमलता बड़े महत्व
का गुण हैं। मिट्टी अत्यंत लाभदायक
होती हैं। जीवन में कोमलता में ही स्नेह
को स्थान मिल सकता हैं। दुष्ट और अड़ियल
लोगों से कोई स्नेह नहीं करता।
कोमलता और स्नेह सदाचार को शक्ति देते
हैं। मिट्टी का पात्र, तेल
तथा बाती का संगम ही दीपक को सदैव
आलोकित कर सकता हैं। कोमलता, स्नेह
तथा सदाचार की त्रिवेणी में ही ज्ञान के
सरोज विकसित हो सकते हैं। कोमल हृदय,
स्नेहशील और सदाचारी व्यक्ति ही ज्ञान
का आलोक प्रसारित कर सकता है।
तो, स्नेह और सदाचार की पावन
प्रतिमा। तुम हमें प्रेरणा दो कि हम
सहयोग का सबक सीखकर तुम्हारी पृष्ठ
भूमि में छिपे हुए दर्शन को व्यवहारिक रूप
दे और संसार में उसे प्रकाशित करें। ओ,
ज्ञानालोक के महानदेव!
तुम्हारी परोपकार और स्वार्थहीन
विशाल वृत्ति के समक्ष श्रद्धा कर लेने
मात्र से हम स्वयं को गौरवान्वित अनुभव
करते हैं। हे कुशल कलाकार! तुम हमें वह मंत्र
क्यों न बता देते जिससे तुमने स्वयं जलने और
दूसरों को राह दिखाने की कला सीखी हैं।
तिल-तिल जलकर भी तुम अपने पथपर अटल
और अडिग प्रहरी की भाँति खड़े हुर रहते
हो। हे आराध्य! उस अमूल्य कलानिधि में से
चयन कर कुछ निधि हमारे लिए
भी तो निकाल कर दो, ताकि हम
भी अपना जीवन किसी लक्ष्य के लिए
समर्पित कर सकें।

मेरा लेख

'वो कागज की कश्ती, वो बारिश
का पानी' जगजीत-चित्रा सिंह
द्वारा गाई गई ग़ज़ल की ये पंक्तियाँ सुनते
ही हम सब कई बरस पीछे अपने बचपन
की यादों में समा जाते हैं। बचपन
जहाँ केवल मस्ती ही मस्ती होती है। हम
सबका बचपन तितली की तरह उड़ता,
चिड़िया की तरह चहकता और
गिलहरी की तरह फुदकता हुआ था। सुख और
दु:ख की घनी छाँव क्या होती है,
इसकी हमें खबर न थी।
सावन की पहली फुहार का बेताबी से
इंतजार रहता था हम सबको। बूँदें
धरती पर गिरी नहीं कि हथेली उसे सहेजने
के लिए अपने आप ही आगे बढ़ जाती थी।
पलकों को छूती हुई वे बूँदें मन
को भिगो जाती थी। बारिश में भीगने
का ऐसा जुनून
होता था कि भरी दोपहरी में जब घर के
सारे लोग सो रहे हों, तब चुपके से
माँ की ओट छोड़ कर दबे पाँव एक कमरे से
दूसरा कमरा पार करते हुए, धीरे से
किवाड़ खोल कर घर की देहरी लांघ जाते
थे। देहरी लांघने में खतरा हो, तो दीवार
फाँदने में देर नहीं करते थे। फिर एक के बाद
एक सबको आवाज देते, किसी को खिड़की से
पुकारते, तो किसी को पक्षी या जानवर
की आवाज के इशारे से पुकारते घर के बाहर
ले आते थे। फिर लगता था मस्ती का मेला,
खुद की मस्ती, खुद की दुनिया।
काला घुम्मड़ आकाश और कौंधती-
कड़कड़ाती बिजली के बीच मूसलाधार
बारिश में उफन आए पोखरों व नालों में
कागज की कश्ती बनाना और उसे दूर तक
जाते हुए देखना कितना सुखद अहसास है।
तब न कपड़े भीगने का डर पास फटकता था,
न ही दादाजी की छड़ी और न
ही माँ की झिड़की या पिता की पिटाई
याद आती थी। उस समय तो मन बस
भीगा होता था, मटमैले पानी में डूबती-
उतराती कश्तियों में।
हममें से भला कौन होगा, जिन्हें
अपना बचपन बुरा लगता होगा। एक
वही थाती है, जो जीवन भर हमारे साथ
होती है, कभी रात को चुपचाप
बिना बताए भी चला आता है, यह
शरारती बचपन। हम भले ही यह कहते रहें-
भला यह भी कोई उम्र है, जो हम अपने
बचपन जैसी हरकतें करें? पर वह
कहाँ मानता है, थोड़ी-सी चुहल के बाद वह
हमसे करा ही लेता है, ऐसी कोई न कोई
हरकत, जिसे हम बचपन में बार-बार करते
थे। इस बार करते समय हम भी थोड़ा सहम
गए थे, कहीं किसी ने देख
तो नहीं लिया ना। यह होता है बचपन
का एक छोटा-सा अहसास, जो मन
को भीतर तक गुदगुदा कर रख देता है।
हमारे बचपन को तो यह अच्छी तरह याद
है, जब हम सब बहते पानी के बीचोबीच खड़े
हो जाते थे, नीचे से रेत खिसकती थी, हमें
ऐसी गुदगुदी होती थी, मानों रेत नहीं,
रूई के फाहों से कोई हमारे घावों को हल्के
से साफ कर रहा हो। आज भी जब कभी चोट
लगती है, कंपाउंडर हमारे घाव को रूई से
साफ करता है, तो वही अहसास धीरे से
हमारे सामने आ खड़ा होता है। हम
कनखियों से उसे देख लेते हैं, उसे पास
नहीं बुलाते। केवल इसलिए कि कहीं वह
हमारे बचपन
की शरारतों को गिनाना शुरू न कर दे।
हममें से शायद ही कोई ऐसा होगा,
जिसका बचपन शरारतों के साथ न
गुजरा हो। शरारतें भी ऐसी कि जिसे
यदि आज याद किया जाए, तो हमारे
यौवन को भी शर्म आने लगे। मेंढक पकड़कर
साथी की जेब में डालना, तितलियों और
पतंगों को पकड़कर डिब्बे में बंद कर एक
साथ छोड़ना, पतंगों के पीछे धागे बाँधना,
कीचड़ से सने पैरों समेत बेधड़क घर में घुस
जाना, केंचुए पर नमक छिड़ककर
उसका छटपटाना देखना, पेड़ पर चढ़कर
डालियों को तेजी से हिलाकर राहगीर
को भिगो देना, बस्ते को जानबूझकर
भिगो कर शाला न जाने के बहाने करना,
पेन की स्याही को बहते पानी में डालना,
पानी भरे जूतों से थपथप करते हुए चलना,
पानी भरे गड्ढों से ही गुजरना,
ऐसी शरारतों की सूची काफी लंबी हो सकती है,
अपने-अपने अनुभवों के आधार पर। किंतु यह
सारी शरारतें केवल बचपन की ही देन हैं।
हमारा यौवन इस तरह की शरारतें करने के
लिए गवाही नहीं देता। कोमल मन
की कोमल भावनाओं से भरा हमारा बचपन
आज भी हमारे ही भीतर है, पर हम हैं
कि उसे बाहर ही नहीं आने देते।
आज जब हम बच्चों को उस तरह की शरारतें
करते देखते हैं, तब एक बार तो लगता है
कि बच्चे ये क्या कर रहे हैं, पर तभी हमारे
भीतर से आवाज आती है, क्या तुमने यह सब
नहीं किया? आज हम सोचते हैं
कि हमारा बचपन अब चौराहों पर
ही सिमट गया है, जहाँ से एक
रास्ता यौवन को गया, एक विवाहित
जीवन को गया, एक नौकरी के नाम पर
गया और एक यह उम्र, जब बचपन को याद
करते हुए आंखें भीग रही हैं। पचपन में
आंखों का भीगना फिर बचपन में ले जाता है,
जब बारिश के पानी को पलकों पर लेते थे,
कभी उसका स्वाद अपनी जीभ पर लेते थे।
कभी धोखे से पानी यदि खुली आंख पर
चला जाता था, तब आंखें
काफी पीड़ा देती थी। पर उस समय
तो पीड़ा से
नाता ही टूटा रहता था हमारा। हम
किसी भी पीड़ा को नहीं जानते थे।
हमारी पीड़ा वह थी, जब हमारा कोई
साथी बुखार से तप रहा होता था,
या फिर उसकी झोपड़ी में बारिश
का पानी भर जाता था, गाँव से शाला आते
हुए किसी साथी की कापी-किताबें
पानी में बह जाती थी और शिक्षक उसे
भीगे कपड़ों में ही क्लास के बाहर खड़े कर
देते थे। यही थी हमारी पीड़ा।
आज हमारा बचपन तो हमारे साथ है, पर
हमारे बच्चों का बचपन शायद उनसे दूर
जा रहा है। बारिश के बहते पानी में
उनकी कागज की कश्ती दूर कहीं चली गई
है। उनकी हरकतों में वह अल्हड़ता, वह
मस्ती, वह उमंग दिखाई नहीं देती, जिसे
हमने विरासत में पाया। हमारे बचपन में
तो चाँद में परियाँ रहती थी, पर हमारे
बच्चों के बचपन में परी तो नहीं रहती,
बल्कि चाँद में क्या सचमुच जीवन है
या नहीं, यही उनके शोध का विषय
बना हुआ है। कॉपी-किताबों, टीवी, चैनल,
कंप्यूटर ने उनके बालपन को सीधे यौवन में
पहुँचा दिया है। उनका बचपन स्कूल, ट्यूशन
और होमवर्क में बट कर रह गया है।
अब नहीं थमती उनकी नन्हीं हथेलियों पर
पानी की बूँदें, रिमझिम फुहारें उन्हें
भिगो नहीं पाती, पैरों तले फिसलती रेत
की गुदगुदी को वे महसूस नहीं कर पाते,
उनकी कल्पनाओं में कोई कागज
की कश्ती ही नहीं, तितलियों और
पतंगों की हल्की-सी छुअन का अहसास
भी नहीं जागता उनकी हथेलियों में।
उनकी नन्हीं आंखों में पल रहे हैं माता-
पिता के सपने और पीठ पर है अपेक्षाओं
का बोझ। ऐसे में भला कहाँ ठहर पाता है
बचपन? हमने तो खूब जिया अपने बचपन
को। पर हमारी संतान अपने बचपन से
काफी दूर हो गई है। यदि हम उनमें
अपना ही बचपन देखना चाहते हैं, तो उनके
बचपन के साथ अपने बचपन को मिलाकर एक
बार, केवल एक बार अपनी छत पर बारिश
के पानी में खूब भीगें, खूब बतियाएँ, खूब
मस्ती करें और खूब छोड़ें इस बारिश में
कागज की कश्तियाँ।

कॉरपोरेट

ऑक्यूपाई वॉल स्ट्रीट आंदोलन धीरे-धीरे
ही सही लेकिन एक विश्वव्यापी आन्दोलन
का रूप ले रहा है. विश्व के कई देशों में इस
आंदोलन की दस्तक सुनाई दे रही है.
कहीं तो इससे अत्यंत बर्बरतापूर्वक
निबटा जा रहा है, जो कि गलत है, लेकिन
वह भी इस आंदोलन के पक्ष में ही जाएगा.
ऑक्यूपाई वॉल स्ट्रीट आंदोलन हमारे
जीवन के हर पहलू में घुसपैठ कर
चुके कॉरपोरेट प्रभाव के विरुद्ध बहुत
सशक्त अहिंसात्मक प्रतिरोध है. यह
लोगों को एकजुट करने
वाला ऐसा सकारात्मक प्रयास है
जिसकी कमी बहुत लंबे समय से अनुभव
की जा रही थी. यदि यह अपने उद्देश्यों में
पूरी तरह सफल नहीं हो पाया तो भी यह
असंख्य लोगों को प्रेरित और प्रभावित
ज़रूर करेगा.
बुरी और लोभ आधारित व्यापारिक
नीतियों के विरुद्ध
करोड़ों व्यक्तियों के भीतर कई सालों से
क्षोभ, असहायता और क्रोध भरा हुआ है
जिसे सुरक्षित निकास मिलना बहुत
ज़रूरी था. यह स्पष्ट है कि विराट
कॉरपोरेशंस ने हमारी अर्थव्यवस्था,
नौकरियां, राजनैतिक तंत्र,
और पर्यावरण को अपने चंगुल में कर
लिया है. लेकिन उससे भी कहीं आगे बढ़कर वे
हमें यह सिखाते हैं कि हमें अपना जीवन कैसे
जीना चाहिए, हमें अपना समय कैसे
बिताना चाहिए, हमें प्रियजनों और
मित्रों के प्रति अपना प्रेम कैसे
प्रदर्शित करना चाहिए, हमें
कैसा दिखना चाहिए और स्वयं के बारे में
क्या अनुभव करना चाहिए, लोगों से कैसे
घुलना-मिलना चाहिए, अपने
बच्चों को कहाँ और कैसे पढ़ाना चाहिए,
टाईमपास कैसे करना चाहिए, संगीत और
कला आदि की रचना कैसे करना चाहिए और
उनसे आनंद किस प्रकार प्राप्त
करना चाहिए.
हमारे जीवन का लगभग हर पल
कॉरपोरेशंस द्वारा मुहैया कराये गए
उत्पादों के साथ बीत रहा है. हम
कहीं भी, कभी भी अकेले नहीं हैं.
ऐसे में हमारे सामने इन कॉरपोरेशंस के
विरुद्ध आवाज़ उठाने और उनकी खिलाफत
करने के कौन से उपाय हैं?
हम चाहें तो बहुत कुछ कर सकते हैं. सबसे
ज़रूरी चीज़ यह है कि हम अपनी बात पर
कायम रह सकें और अडिग रहें.
मैं मिनिमलिस्ट हूँ और मेरे लिए विरोध
दर्ज कराने का सबसे बेहतर तरीका यह है
कि मैं अपनी आवश्यकताएं कम करूं और उन
कंपनियों के उत्पादों का बहिष्कार करूं
जिनकी व्यापार, विपणन, और विज्ञापन
नीतियों को मैं सही नहीं मानता.
कठिनाई यह है कि इस पैमाने से अस्सी-
नब्बे प्रतिशत कंपनियों को खारिज
करना पड़ जाएगा. बहिष्कार के कुछ
सरल तरीके यह हैं: कॉरपोरेट
भोजनालयों में नाश्ता, भोजन या चाय-
कॉफ़ी नहीं लेना; कॉरपोरेट वस्त्र और
प्रसाधन सामग्री नहीं खरीदना;
कॉरपोरेट मनोरंजन को दरकिनार करके
मन-बहलाव के निजी/सामुदायिक तरीके
खोजना; अपने वस्त्रों/वाहन आदि पर
किसी भी तरह के लोगो प्रदर्शित
नहीं करना; परिचित व्यक्तियों से
मिलने-जुलने के लिए कॉरपोरेट
संस्थानों द्वारा विकसित अम्यूजमेंट
पार्क/
शॉपिंग स्थलों को प्राथमिकता नहीं देना;
उत्सव-पर्व आदि को शुचितापूर्वक
एवं पारंपरिक रूप से मनाना, आदि.
यह संभव है… क्योंकि मानवता अभी चुक
नहीं गयी है. हवा कुछ मलिन ज़रूर हुई है
फिर भी सांस लेने लायक है. हम सांस ले
सकते हैं लेकिन हमें उसके लिए स्वच्छ परिवेश
की रचना करनी होगी.
यह पोस्ट प्रसिद्द मिनिमलिस्ट ब्लौगर
लियो बबौटा ने अपने इस ब्लॉग में
लिखी है.

मेरा उद्देश्य

मेरा काम है हर क्षैत्र से ऐसे लोगों को इस
मंच लाना जो आजतक इस मंच से दूर रहे हैँ ।
ऐसे लोग
जो अपनी योग्यता का झूठा प्रदर्शन करने
में विश्वास नहीं रखते है । मैं जिन लोगों के
बारे में इस वेबसाइट पर सूचना देता हूं
वो सूचना उनके नजदीकी मित्रोँ,
पङौसियों, विद्यार्थियों एवं
शिक्षावदों से प्राप्त करता हूं । मेरा काम
है ऐसे लोगों को एक नयी दुनिया में
लाना जो आजतक इससे अनभिज्ञ रहे हैं,
जो लोग अपनी योग्यता और ज्ञान के
बावजूद दुनिया की नजरों में नहीं आये है । मैं
अपनी वेबसाइट के लिए ऐसे
लोगों को चुनता हूं जिनके बारे में
दुनिया को जानकारी कम होती है । मैं
किसी की भी सिफारिश को नहीं मानता ।
सिर्फ वही करता हूं जो मेरा दिल इजाजत
देता है । इससे पहले मैँ सन् 2007 से अपने
डोमेन नाम की वेबसाइट ' हमारे गौरव'
चलाता था मगर कुछ आर्थिक परेशानी के
कारण मेरी वेबसाइट बंद हो गयी और
समस्त डाटा मिटा दिया गया । अब मैनेँ
अपने विचारों को अभिव्यकत करने और अपने
प्रयोजन को पूरा करने के लिए इस मंच
को चुना है । मेरे इस पते के बारे में मेरे पुराने
विजिटर को थोङा कम पता है मगर
प्रतिदिन लगभग 250 से ज्यादा लोग
यहां आते हैं । मेरी वेबसाइट के लगभग 1500
सदस्य हैं जिनमें से आधे प्रवासी भारतीय हैं
। मेरे इस मंच पर प्रतिदिन कई
विदेशी भारतीय भी अपनी राय जाहिर
करते हैं । पिछले दिनों सम्पन्न हुए
प्रवासी भारतीय सम्मेलन में भी मेरे इस
प्रयास की काफी सराहना हुई थी और
त्रिनिदाद की राष्ट्रपति ने मुझे
प्रशस्ति पत्र देकर सम्मानित किया था ।
मेरी पुरानी वेबसाइट के डाटा मिट जाने
के कारण मेरी लगभग सारी सूचनाएं मिट
गयी है लेकिन जो कुछ मेरे कम्प्यूटर में शेष
थी वो मैनें इस पर अपलोड कर दी है । इन
सब के अलावा मैनें कुछ लेख भी जोङे हैँ
जो विभिन्न जगहों से संदर्भित है । मैं फिर
से इस मिशन पर निकल पङा हूं । दिनांक
1-1-12 के अनुसार विभिन्न देशोँ से
मेरी सदस्य संख्या- कनाडा-328
अमेरिका-171 रूस-16 त्रिनिदाद-4
श्रीलंका-13 चीन-45 जापान-1
जर्मनी-10 नेपाल-471 भारत-903 अरब
अमीरात-168 इनके अलावा भी कई देश और
है । यदि किसी सज्जन को राय
देनी हो तो मुझे मेल करें । आपकी राय
का स्वागत है । आशा है कि ये ब्लॉग
भी छुपी हुई प्रतिभाओं को आगे लाने में
सहायक होगा और पहले की वेबसाइट
की तरह सफलता प्राप्त करेगा।
इसी आशा के साथ आपका अपना श्रुतकल्प (3
केविन्स स्ट्रीट, हाउस नंबर 45,पर्थ,
ऑस्ट्रेलिया)